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ये भावना उस औरत को देखकर मेरे मन में उपजी थी जो पिछली साल गर्मी (जून) में हमारी ही गली के नुक्कड़ पर बन रहे मकान मैं मजदूरी के लिए आई थी ॥ लू के थपेड़ों में लोग अपने ए सी वाले घरों में बंद थे ॥पर वो और उसका नन्हा शिशु ………………नन्हा शिशु इसलिए कहूँगी क्यूकी माँ की मजूरी में कहीं ना कहीं उसका भी योगदान था । ये भावना अब आपसे शेयर कर रही हूँ ॥
“पत्थर “
जून की गर्मी में
पत्थरों को ढोते हुये
कहीं वो पत्थर तो नहीं हो गई
पत्थरों को ढोते हुये
भाव भी कहीं पत्थर
तो नहीं हो गए
इन्ही पत्थरों पे
इसके सोते हुये
श्याम -वर्ण उसके चेहरे पर
बह रहीं हैं पसीने की मोटी बूंदे
उर को उसके भिगोते हुये
पत्थरो को ढोते हुये
पास पड़े पत्थरों से
खेलता उसका शिशु
उसके पत्थर से जिगर को
जता रहा है
वो खामोश सी देखती उधर
बुत सा बन
पत्थरों को ढोते हुये
भूखे पेट की गर्मी
शायद ज़्यादा रही होगी
तभी तो जून की गर्मी
भी उसे सता नहीं रही
लू के थपेड़ों से भी
वो क्यूँ रुकती नहीं
पत्थरों को ढोते हुये
फ़ाग-बसन्त
होली दिवाली
शायद इसने इन
पत्थरों में बसा ली
मन की कुलांचों में भी
इसने पत्थर भरें हैं
शायद ही अब इसके
मन के पौधे हरें हैं
इन्ही पत्थरों को निहारती है ये
बस पत्थरों को ढोते हुये
कहीं ये पत्थर तो नहीं हो गई
पत्थरों को ढोते हुये ……………………….. पूनम राणा “मनु”
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