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“पराई ”
चार-दिवारी के पर्दों में, छुप-छुपकर
पलती रही वो,चुप चलती रही वो
वजह- बेवजह, दादी की डाटों को सुनकर
बालपन में, छोटे-बड़े भाइयों पर
भुन भुनाती रही वो
दीदी की पायल,पैरों में पहन-पहन देखती
दादाजी की लाठी भी संभालती रही वो
बाबूजी की चौकी तो अक्सर बिछाई,
अम्मा के काम में भी हाथ बंटाती रही वो
भाइयों सी सुविधा उसे मुहैया न थी
स्कूल में फिर भी अव्वल आती रही वो
बाबा ! मैं कुछ बनना चाहती हूँ
कह,हर सर्टिफिकेट उनको थमाती रही वो
ज़िंदगी की इस आपाधापी में,
न जाने कब वो बड़ी हो गई
डिग्री पाते ही सपना मुस्कुरा उठा,
जिसको अबतक आँखों में सजाती रही वो
बहुत पढ़ ली अब ससुराल में पढ़ना
बाबा बोले, तो चुप सुन सपनों को
दफ़न कर मुसकुराती रही वो
आज समझी थी, शायद वो इसका मतलब
बेटी इनकी है तो भी, पराई क्यूँ कहलाती रही वो
जिनसे ज्यादा कभी भी किसी की
अपनी न हो सकेगी वो -2
जानते-बुझते उन्होने कर दी विदा
और मन ही मन छटपटाती रही वो …………… पूनम राणा “मनु “
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